अब बस कल की ही बात है मैं और मेरी चुलबुली ‘खट्टी मीठी’ इमली जैसा स्वभाव रखने वाली मेरी नन्ही परी दिल्ली एयरपोर्ट पर तीन घंटे का इंतज़ार अगली कनेक्टिंग फ्लाइट के लिए कर रहे थे की तभी मेरी परी चौंक कर अपने कौतूहल से भरे अपने बादाम जैसे आँखों को घुमाते हुए पूछा की “हम जब यह पढ़ते हैं की हर कागज़ पर माँ सरस्वती का वास है तो फिर क्यों कर लाउंज के टॉयलेट में एक पेपर का रोल पड़ा हुआ है ? क्या वहां माँ सरस्वती को बदबू नहीं आती ?”
उसे भले ही उस कागज़ का इस्तेमाल भलीभाती अँग्रेज़ चले गए पर पता है जिस के कारण वो और भी आश्चर्यचकित थी। और इसी प्रश्न के साथ हम दोनों को भली-भांति यह ज्ञात हो चुका था की हमारे तीन घंटे पंख लगा कर फुर्र हो जायेंगे क्योंकि मेरी बेटी ने एक अंतहीन विवादास्पद चर्चा का छोर पकड़ा दिया था और हम दोनों आँखों ही आँखों में एक दूसरे को देख मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।
अब प्रश्न यह था की हम किस बात की सार्थकता कहाँ से शुरू कर अंजाम तक पहुंचाते। नन्ही परी अपने गुलाब के पंखुरी जैसे होंठ हिलाती और अनेकों ‘तीखे तीर’ अपने अंतहीन ‘तरकश’ से मेरे ऊपर दाग रही थी कारण सीधा था भले ही दुनिया के लिए ‘गूगल ताऊ’ सब कुछ है पर मेरी परी की दुनिया मुझ पर ही सीमित है, अतः उसने मुझे ‘गूगल’ से भी सर्वोपरि दर्जा दिया हुआ है जो की एक मीठी सी उलझन भी है।
बचपन से हम माँ सरस्वती की पूजा करतें हैं और मान्यता यह भी है की कॉपी-किताब एवं अलहदा पठन-पाठन की सामग्री में सरस्वती का वास है तो फिर क्यों खाद्य पदार्थ की सामग्री कागज़ में बिकती है? इस्तेमाल के बाद यदा-कदा स्थानों में पड़ी रहती है और बेतरतीब तरीके से कुचली जाती है, मिठाई के डिब्बों में भगवान बने होतें हैं, साल भर पढ़ने के बाद पास हों या फेल बेफ़िक्र होकर रात-दिन कबाड़ी वाले के स्वागत में लोग मानो आरती की थाली लिए इंतज़ार करते हैं, पढ़े हुए अख़बारों का भी यही हश्र होता है।
क्या इनमे सरस्वती माँ का वर या अभिशाप छुपा होता है ? यह वही जाने, फिर प्रश्न यह था क्या सिर्फ जिन कागज़ों पर अक्षर लिखें होतें हैं क्या उन्ही में सरस्वती का वास है ? तुरंत जवाब आया की “नहीं माँ, उस दिन ‘भेल’ भी अख़बार के एक टुकड़े में दिया था दुकानदार ने और सब खाकर उसे तिरस्कार कर रहे थे तो क्या हम सरस्वती को झूठा नहीं कर रहे थे माँ ?” पर हम भारतीय भी अंग्रेज़ों से भी कुछ कम नहीं हैं और वह बिना ‘टॉयलेट – पेपर’ वाले शौच में जाना शर्म की बात समझते हैं। पर हमारा भारतीय समाज जो शुद्धि-अशुद्धि के मद्देनज़र ‘जनेऊ’ को कान के पीछे फंसा कर शौच जाने में धर्म का पालन समझते हैं उनका क्या ? यहाँ तक की वस्त्र बदल कर एवं शौच पश्चात स्नान की भी परंपरा रही है क्या हम अनुशासनहीन हो गए हैं? विडम्बना…
वस्त्र से याद आया की भारतीय मौसम मे सूती या खादी के वस्त्र जैसे धोती कुर्ता आदि हमारी त्वचा के लिए सर्वोत्तम हैं। पर हमें तो पूरे अँग्रेज़ दिखना है चुस्त पजामा (पैंट), अटी हुई कमीज़, टाई नामक फाँसी का फँदा, मानो एक बेलगाम मोटे पशु को अपने काबू में करने के अथक प्रयास करता हुआ एक लेदर का टुकड़ा (बेल्ट) जिसमे हर महीने कील से एक नया छेद कर दिया जाता है ताकी पेट रूपी बेलगाम पशु काबू में रहे पर इससे वायु विकार से पैदा हुए प्रदूषण को प्रकृति और आसपास के लोग अनायास ही झेलतें हैं, यही एकमात्र पदोन्नति मुझे दिखती है और गज़ब तो तब ढह जाता है जब कद्दू रूपी तोंद से मात्र बेल्ट के सबसे पास वाले छेद से लटका हुआ पतलून अपनी आख़िरी सासें ले रहा होता है, यह चित्रण और भी परिभाषित तरीके से देखना हो तो फिर ‘लो – वेस्ट जीन्स’ के क्या कहनें, वह तो हर पल चेतावनी देती मालूम पड़ती है की मैं अब गई या तब गई, मिया ‘पेन्सिल – कट जीन्स’ भी बहुचर्चित परिधानों में से एक है। पर प्रश्न यह है की भारतीयों को धोती पहनने में कोनसा महान टैक्स चुकाना पड़ता है ? कुर्ता-पजामा क्या सिर्फ शयनकक्ष के दायरे तक सीमित है ? धोती-कुर्ता क्या शादी-विवाह या किसी अनुष्ठान तक सीमित रह गया है ? कुछ मनचले तो शादियों में भी जीन्स पहनना अपना स्टेटस समझते हैं, कुछ मनचले अपने जीन्स में कैंची चलाने से भी बाज़ नहीं आते, कुछ तो मानो चूहों की फ़ौज बिठा कर धागे नुचवातें हैं, कुछ एसिड गिरवा कर रंग उड़वाते हैं, परिभाषा के अनुसार ऐसे कपड़े पहनें वालों को भिखारी समझा जाता था पर अब यह नक़ल का फैशन है कुछ तो ‘निक्कर’ से ही आगे नहीं बढ़ पाते शायद यह भी कोई नया ‘फैशन’ है पर हाँ सच्ची भारतीयता तब नज़र आती है जब रात के अंधेरे में भारतीय पुरुष अपने लुंगी से सुसज्जित होकर खुद को बहुत हल्का महसूस करते हैं। तो फिर इसी का बड़ा चचेरा भाई धोती है तो फिर उसको पहनने में कैसी शर्म ?
महिलाएँ भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं कई जगह तो साड़ी कटवाकर बच्चियों के फ्रॉक का रूप इख़्तियार करते दिखते हैं या फिर ‘कुशन कवर्स’ के काम में लाए जातें हैं पर शायद साड़ी से ज्यादा खूबसूरत, सम्मोहक लुभावना वस्त्र नहीं है, रानी लक्ष्मी बाई ने भी अंग्रेज़ों का सामना साड़ी पहन कर ही किया था, साड़ी भी हमारे देश के मौसम के अनुकूल है, खेतों में आज भी गाँव की औरतें साड़ी पहन कर काम करतीं हैं, मर्दों से कंधा से कंधा मिला कर….. अलग अलग ब्रांड के कपड़े, फिर ‘पैंटालून’ जैसी कम्पनी तो मानो भारतीय महिलाओं की परम मित्र हैं कारण ‘सिंपल’ वह बहुत अच्छे तंबू बनाते हैं जिसमे हमारी आंटीयो का खाया पिया सब गायब चुटकिओं में तो फिर कीमत चुकाने मे किसको कष्ट होगा ? विडम्बना…
सौंदर्य प्रसाधन भी इस लाइन मे सबसे अव्वल नंबर पर हैं, मेहेंगे-मेहेंगे गोरा दिखने की क्रीम, न हम उबटन नहीं लगाएंगे और लगाएंगे तो भी रेडीमेड, ‘ब्यूटी पार्लर्स’ में जाना और रही सही बर्बादी की कसर पूरी कर के आना मानो परम सिद्ध कर्त्तव्य है ! नहीं कहाँ ऐसा लिखा है की जो भी सामान कोई विदेशी कंपनी ‘लांच’ करे तो होड़ सी लग जाती है उसे अपना बनाने की ? क्या हम ‘आँख के अंधे’ होने वाला मुहावरा सार्थक नहीं कर रहे ? ऊँची एड़ी के चप्पल भी डगमगाते हुए दिमाग में हिचकोले मारतें हैं यह भी कॉम्पिटिशन में पीछे नहीं है, ‘सुडोल’ हों या ‘बेडोल’ ऊंची एड़ी की चप्पल पहनते ही मानो किसी ‘कमसिन मॉडल’ की ‘आत्मा’ घर कर जाती है। विडम्बना। घोर विडम्बना।
पर शायद इतने साल अंग्रेज़ों के साथ रहने के कारण हम खुद को उनका प्रतिबिंब समझते हैं। कहने को तो हम हिन्दी भाषी राष्ट्र है पर शायद हम ‘हिंगलिश’ पर ज्यादा ज़ोर देते है आश्चर्य तो तब होता है जब बड़े-बड़े अफसरों को भी पूर्ण वर्णमाला नहीं आती है, ‘इ-उ’ की मात्राएँ तो बस राम भरोसे रहती है, हम ही एक ऐसा राष्ट्र है और राष्ट्र बनता है लोगों से अतः हम लोगों ने ही अंग्रेज़ी को इतना महत्व दे रखा है पर दुःख की बात यह है की हम न श्लोकतो अंग्रेजी ही बोल या समझ पाते हैं ढंग से न ही ‘ग्रामर’ पल्ले पड़ता है, कसम अंग्रेज़ी की क्यों हम अंगेज़ों के पीछे भागते रहते हैं ? अंग्रेजी आए तो वह भी आले दर्ज़े की हो तब तो मज़ा है अन्यथा धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का…
हमने अपनी ज़िंदगी दुर्भर खुद बनाई हुई है आजकल तो ‘इ-बुक’ का प्रचलन है वरना अगर एक पन्ना हिंदी मे लिखने की बात आ जाये तो बस बत्ती गुल !! हमे क्यों शर्म आती है अपनी चीज़ को गर्व के साथ अपना कहने मे ? भगवन जाने !! संस्कृत तो लोगों को ‘एलियंस’ की भाषा लगेगी फिर तो ? पर मैं तो आज भी संस्कृत के ‘शब्द एवं धातु रूप, श्लोक’ अपने परी को सुनाती हूँ क्योंकि संस्कृत ही तो हर भाषा की जननी है.
कुछ लोग जान बूझ कर भीड़ मे अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करते हैं या फिर लोग बड़े गर्व के साथ ‘गुडमॉर्निंग’ का अदब निभाते हैं, क्यों जी अगर नमस्ते कह देंगे तो सर कलम करवा दिए जायेंगे क्या ? बस हमे अपनी सोच बदलनी हैं हम आखिर क्यों बने ‘नकली अँग्रेज़’ ? अगर यही करना था तो इतने खून की होलियां क्यों खेली गई ? क्यों भगत सिंह को इस बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया ? क्या अगर आज वह जीवित होते या वह कहीं से हमे देख रहे होंगे तो क्या उन्हें अफ़सोस नहीं होता होगा की हम इन बेवकूफ ‘नकली भारतीयों’ के लिए अपनी क़ुर्बानी दी ? कम से कम उनके बलिदान का तो हमे आदर करना है या हम इतने अहसानफरामोश हो गए हैं ? याद रखिये हमारी पीढ़ी का सत्यानाश आरंभ हो चुका है, रोका नहीं तो बहुत देर हो जाएगी और हम बस मूक दर्शक बन कर रह जायेंगे. वही बिडम्बना !!
माता पिता खान-पान को लेकर यही बखान करते हैं की बच्चे पिज़्ज़ा, पेस्ट्री, पेटिस, बर्गर के अलावा कुछ भी नहीं खातें. क्यू ? क्या हमारे भारतीय व्यंजन – पूरी, पराठे, कचोरी किस आलम मे कम हैं ? न स्वाद मे, न पोष्टिकता में कम है बस उनमे जहरीले ‘केमिकल्स’, ‘मोनो सोडियम ग्लूटामेट’ जैसे तत्व नहीं हैं बस हमारे ‘भौगोलिक लोकेशन’ के हिसाब से ताज़ा साग-सब्जी लाकर खाना बनाना है. सर्वाधिक ‘स्वस्थ’ प्रिय हैं पर नहीं आज कल के लोग बड़े बड़े ‘स्टोर्स’ से ‘पैक्ड’ या डब्बा-बंद खाना, बेमौसम की सब्ज़ी खरीदने मे खुद की शान समझते है. चावल, रोटी, सब्ज़ी तो बस पेट भरने की व्यवस्था मात्र हैं, फिर ताज़े फलों का जूस इत्यादि भी लोग नहीं लेते कारण चुटकी बजाते हाज़िर होने वाले बोतल-बंद रसों की भरमार वह भी सब देखा देखी !! अरे भाई, वहां का तापमान और हमारे यहाँ की उमस भरे मौसम की कोई तुलना ही नहीं हो सकती तो भाई बचा ‘पौष्टिक खाने’ वह भी भारतीय थाली किस एंगल से बुरी है ? भगवान जाने !! जबकी अंग्रेज आज कल मल्टीग्रैन आटा, सूखे मसाले, खड़े मसाले, दही इत्यादि का प्रयोग मे ज़्यादा ला रहे हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है की वह हमारा हम उनका अच्छा अनुसरण करें न की अंधे भक्त हो जाये और हर चीज़ ‘कॉपी पेस्ट’ करें और उसी में खुद की शेखी समझे. फिर वही नक़ल की ज़िन्दगी, भुट्टे को भुट्टा न कह कर छोटे कदकाठी के को ‘स्वीट कॉर्न’ या ‘बेबी कॉर्न’ तब भुट्टा भी शान से परोसा जाता है या फिर १०० -१५० रूपए का तिकोना कोन भुने हुए भुट्टों के दानों से भरा हुआ किसी मल्टीप्लेक्स का गोल्डन पॉपकॉर्न भी भुट्टे के लिए अति सम्मान की बात है. उससे भी ज्यादा हमारे लिए, कई साहब ज़ादे तो के.ऍफ़.सी, डोमिनोस जाना अपने सात पुरखों की शोभा यात्रा निकालना बराबर समझतें हैं. वह भी क्या मंज़र रहता है के.ऍफ़.सी का बीड़ी से भी पतले लड़के और उन से भी पतली उनकी टांगें जिससे न जाने जीन्स किस के बूते टंगी रहती है शायद किसी की कसम होगी, वो सामने फूले हुए बालों का फुग्गा जो की किसी के थूके हुए पान की पीक जैसे कथई लाल रंग का ना होना दंडनीय अपराध तुल्य प्रतीत होता है, पावों में रंगबिरंगे जूते मानो केक की कई परतें जमी हुई हों पेस्ट्री जैसे शायद लम्बे दिखने का इससे नायाब तरीका न हो सके, फिर बाइक चलाने का भी उनका अपना ऐडापान है, भले ही टांग टीके न टीके या फिर बैलेंस भी न हो पर सबकुछ राम भरोसे हाँ पर के.ऍफ़.सी मे आर्डर के बाद मुर्गी की जान गई पर खानेवाले को…. वाली बात सच साबित होती है कारण एक सर्टेन मात्रा मे खाने का तिरस्कार भी होता है फिर सूडो-अँग्रेज़ क्रश के बिना शायद एक निवाला भी हलक से न उतरता हो वह भी छोड़ के चल देते है और शायद घर पर बेचारा बाप इनकी बैंकों की इ.एम्.आई चुकाने मे कहीं अपनी खून पसीना एक कर रहा होगा. फिर वही विडम्बना।
यस सर, नो सर, थैंक्यू सर, हो जायेगा सर, नो प्रॉब्लम सर, गुडमॉर्निंग सर, सॉरी सर इत्यादि तो मानो किसी भी ऑफिस के बाबू को आ जाए तो बस उसकी तरक्की निश्चित है भाव-भंगिमा से भी खुद को अँग्रेज़ से कुछ कम नहीं समझते। विडम्ब…
त्योहारों में भी भारत कई धर्मों का मधुर मिलन का राष्ट्र है कारण ‘बारह महीने में तेरह पर्व’ हैं पर यहीं पर आप चूक कर गए कारण हम ‘सुडो अंग्रेज़ों’ को भले ही बिहू, पोंगल, पोश, वैसाखी याद हो न हो, न ही इनके विशेष रीती-रिवाज़, न ही इन दिनों में खाये जाने वाले विशेष व्यंजन पर ‘हैप्पी क्रिसमस’, पुरे जोश से कहना ‘हैप्पी न्यू ईयर’ मनाना या कहना नहीं भूलते। फिर आज कल तो हर प्राणी के लिए एक दिन विशेष रूप से निर्धारित किया गया है फिर वह पैदा करने वाले माँ-बाप हों ‘मदर्स डे, फादर्स डे’ या फिर दादी, नानी हों, अरे भाई, यह तो हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं जो चिर जीवन हमारे साथ रहेंगे तो फिर एक विशेष दिन क्यों ? फिर वही विडम्बना।
जो अंग्रेज़ों की आदतें आसान थीं वह तो हमने कटिबद्ध तरीके से अपना लिया, पर क्या हम उनके अनुशासन, जो हमारे महानगरों को अंग्रेज़ों ने रूप रेखा दे कर भव्य बनाया था क्या हम उस भव्यता को कायम रख पाए ? ‘लुटियन’ की दिल्ली वैसी है क्या जैसे उसने सोचा था ? कलकत्ता का हावड़ा ब्रिज, देहरादून का एफ.आर.आई, आई.एम.ए, जैसे कई लैंड मार्क्स हैं जो अंग्रेज़ों ने बनाए थे और आज यह उन महानगरों का अस्तित्व है। आज कल तो पांच साल पुराना स्कूल या ब्रिज चुटकिओं में ढह जाता है।
तो प्रश्न यह उठता है की न वह काला या मैं गोरा हम सब इंसान हैं और इंसानियत ही हमारा परम अलंकार एवं धर्म होना चाहिए और मानव जाती की उन्नति शत प्रतिशत निश्चित है जब हम एक दूसरे की अच्छी आदतों का अनुसरण करें।।।
Wah kya shandar likha hai
वाह क्या खुबसूरत रचना लिखी है, शानदार लेख है!