इतिहास के कुछ भूले-बिसरे पन्नों को पलटते हुए पिछले दिनों अनायास ही और ज्यादा पढ़ने का मन किया, वैसे तो मेरी बेटी के साथ अक्सर ही इतिहास के चर्चित वषोँ पर चर्चा होती है पर मन किया की क्यों ना हम दोनों मिलकर अपने अस्मिता के कुछ भूले-बिसरे पर्ने पलट कर देखे बस यह ख्याल आना था की हम ‘यूट्यूब’ की गलियों को लगे खंगालने कभी इसको ‘क्लिक’ करते तो कभी उसको कभी इसको ‘डिसलाइक’ तो कभी उसको ‘लाइक’ पर इन सब से हमने एक स्पस्ट निचोड़ निकाला और यह की दुनिया बहुत विशाल है और हम मात्र एक बुलबुल है जिसको मेरी बेटी खिलखिलाते हुए कहती है की “नहीं माँ, हम तो बस ‘पॉप- अप-एड्स’ है जिस तरह बड़े साधारण तरीके से संत कबीर ने कहा है –
“पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात।।“
बचपन मे हल्दीघाटी का युद्ध, बैटल ऑफ़ प्लासी, मंगल पांडे, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, और ना जाने अनगिनत कितने अपने प्राणों की आहुति सिर्फ अपने देश के लिए वह भी बिना किसी शर्त के दे दी। जिस माटी मे हम सुख चैन की सांस शायद सुख चैन कारण कोविड जिसने हमारी यह ख़ुशी भी छीन ली है पर फिर भी हम उस हिंदुस्तान की माटी मे चैन से गुजर बसर कर रहे है पर बचपन मे यह इतिहास के रोचक घटनाएं एवं यह महापुरुष मात्र अच्छे अंक लाने के यंत्र मात्र थे पर आज जब जीवन के इस पड़ाव मे आकर सोचती हू तब लगता है की बड़े छोटे सारे राजे-महाराजे, राजपुताना रानियां, छोटे-बड़े किले सभी ने ना जाने कितनी मार-काट, जीत के जश्न, जौहर होती रानियों का अकल्पनीय साहस, सती होती रानियों के आर्तनाद, हथौड़ी-छैनी से पत्थरों को छिलने की आवाज से सराबोर है। किलों ने ना जाने कितने सदाचार, कूटनीति, आक्रोश, स्तब्ध करने वाले आक्रमणों के साक्षी होंगे, मानवीय बुद्दिमता एवं हस्तशिल्प की तो बस पराकाष्ठा है चाहे वह खूबसूरत जीवंत बेल-बूटी से सुसज्जित दीवारें या मक़बरे हो या फिर पेय जल की आपूर्ति हेतु चट्टानों में हाथों से उकेरी गई नालियां या फिर रौशनी के लिए पतली जालीदार नक्काशी किए हुई खिड़कियां या रोशनदान। इन सब को शब्दो में बयां करना तो मानो सूरज को दीपक दिखाना बराबर है।
हम दोनों ने मिलकर राजस्थान के सारे किले, गोलकोंडा किला, मध्यप्रदेश मे सबलगढ़ किला, ओरछा फोर्ट, असीरगढ़ किला, आदि देखे एवं सब अतुलनीय है। मध्यप्रदेश तो मानो पटा पड़ा है, राजा-रजवाड़ो के किस्से-कहानी हो या संगीत कला या उनके किले। होलकर, सिंधिया, निज़ाम, भोंसले, राजपूत, आदि साम्राज्यों के जैसे अपने अपने रख-रखाव एवं ठाट-बाट थे ठीक वैसे ही उनके किला निर्माण की शैली भी भिन्न है. उन्ही के किलों को मुग़ल शासकों द्वारा एक अलग अस्तित्व भी प्रदान किया गया है। मुग़ल शासकों के किले निर्माण शैली मे बुर्ज एवं मीनारे बहुप्रचलित है। अब हम बढ़े अजंता एलोरा गुफाएं, खुनी भंडारा, भीमबेटका गुफाएं, छिंदवाड़ा का पातालकोट, इत्यादि। हम बस यह सोच कर हतप्रभ हो जाते है की किस तरह से इतने विशाल, सख्त चट्टानों को कुरेदा गया होगा वह भी कुछ गिने चुने औजारों से, कितना धैर्य एवं मानवीय बुद्धिमता का असीम क्षितिज रहा होगा ?
इतने सख्त चट्टानों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना या फिर पूरे का पूरा मंदिर उकेरना हमारे सोच के परे है। कितनी शानो-शौकत, अनगिनत जश्न, क्रूर खून की होलियां, नन्ही राजकुमार-राजकुमारियों की किलकारी, दास-दासियों की हामी भरे स्वर, रानी महलों के अठखेलियों, राजाओं के शूरवीर गाथाएं, जौहर की दर्दनाक चीखें, इन सब भिन्न-भिन्न रंगो से रंगे हुए है यह किले. हम तो इन्हे छूकर बस खो जाते है इनके आगोश में। सिर्फ कोशिश करते है की कही कोई पायल की झंकार, तलवार की खनक, रूपमती का कोई आलाप, या किसी सम्राट की अठखेली काश हमें सुनाई दे जाए. हम उन दिनों में बस खो से जाते है मानो की पत्थरों में उकेरी गए मुर्तिया अभी बोल उठेंगी पर इन सब आलीशान, रहन-सहन के बावजूद आज यह महल सुने पड़े है मानों वह अपनी गाथा शांत रहकर भी खुद बयां कर रहे है एवं भारतीय पर्यटकों से थोड़े चिढ़ कर रात होने का इंतज़ार कर रहे हो की कब यह जाएं और हमारे उत्तराधिकारी लौट कर आएं। रात मे ही मानो किले सर्व्वोच्च खुश रहते है तब शायद उनको वही एहसास अपने राजा-रानियों के साथ होता है जो कई शताब्दी पहले होता होगा। काश की हमारे भारतीय पर्यटक भी थोड़े शांत होकर संजीदगी से सुनते की दीवारे क्या कहने की कोशिश कर रहे है।
आज की पीढ़ी तो सब ‘राजा’ है, वह कही थूकते तो कही सेल्फी लेते तो कही एक दिन की गर्लफ्रेंड का नाम उकेरते दीखते है, बड़ी अवहेलना के साथ किले का एक चक्कर खाना-पूर्ति के नाम पर लगा लेते है या शायद टिकट के पैसे वसूलने के चक्कर में, वह इतने खूबसूरत कला कृतियों को ‘फेसबुक’ में ‘अपलोड’ करना ही एकमात्र परमकर्तव्य समझते हुए पूरे दम-ख़म से लगे रहते है उनके लिए ‘फेसबुक’ के सामने कहाँ का कोई राजा और कहाँ का कोई किला। उनके लिए तो एक ही युद्ध सर्वश्रेस्ठ है – ‘लाइक’ और ‘डिसलाइक’ का। राजा जिस तरह युद्ध में अपने राज्य का विस्तार करते थे आजकल उसी तरह ‘यूट्यूब सब्सक्राइबर’ बढ़ाने की होड़ लगी रहती है. इतनी बार तो लोग मंदिरो में घंटी नहीं बजाते होंगे जितनी बार ‘बेल आइकॉन’ को दबाने में अपना सर्वपरी निष्ठापूर्ण कर्तव्य समझते हुए, यहाँ तक की अपने पूर्वज बंदरो की तरह लपककर फ़ोन छीन कर ‘लाइक’ एवं ‘बेल आइकॉन’ दबाकर सम्राट वाली अनुभूति के साथ दांत निपोरते है, यही उनके लिए सबसे बड़ी उत्तेजना एवं ‘हाईटेक’ होने का सबूत है, कारण खुद लूले-लंगड़े हो दिमाग से पर ‘स्मार्ट फ़ोन’ का होना अनिवार्य है. हम असमंजस में रहते है की ‘लाइक’ या ‘डिसलाइक’ के संख्या का क्या अचार डालेंगे ? बिना पढ़े-समझे भी अगर हम ‘लाइक’ का बटन दबा भी रहे है तो वह अमान्य है। क्या आजकल के लोग बहुत अकेले है ? जो वह इस मिथ्याजाल में खुद को दफन कर रहे है एवं दुसरो को भी धकेलने में कम पीछे नहीं है।
पर राजाओं के पास तो सब कुछ चुटकी बजाते उपलब्ध हो जाता था, दुनिया की हर ऐशोआराम उनकी मुट्ठी में थी उन्होंने कोई कोर-कसर ना छोड़ी अपने को अजर-अमर बनाने की पर क्या हम उनको सही मायने में याद रख पाए है ? या वह सिर्फ किले की दीवारों में रचे बसे है ? या फिर इतिहास के पन्नों में अक्षरबन्द होकर आखिरी साँसे ले रहे है ? सून-सपाटे में बिसरा पड़ा है किलों का अंतरमहल, कितने युग कितनी लड़ाइयां इन अबेध किलों को अर्जित करने में लगा होगा फिर भी कोई ना टिका तो फिर काहे की लोग इतना ‘तू तू मैं मैं’ करते फिरते है ? ‘यह मेरा यह तेरा’ का कौन सा गणित है जो हमेशा असुलझा रहता है ? कितने ही तकरार, गृहयुद्ध सिर्फ इस ‘तू तू मैं मैं’ को शांत करने में छिड़ जाते है पर फिर भी लोग एड़ी चोटी का जोर लगा कर ‘यह मेरा यह तेरा’ इस पृथ्वी रुपी मंच पर नाटक की रचना करते है। क्या वह यह सब ‘टाइम पास’ के लिए करते है या फिर अपने आधिपत्य की तृष्णा को शांत करने के लिए इन सब नाट्य रचनाओं में मुखिय भूमिका का रोल निभाते है और फिर ‘भर्राते’ गले से यह भी ‘डायलाग’ मारेंगे की ‘छाती पर रख कर थोड़ी ही ले जायेगा कोई’ ? पर असल में कौन सी भूमिका को सच माना जाए ?
जो चीज़ सबसे ज्यादा जीवित रहने के लिए ज़रूरी है वह तो सबके लिए एक जैसा है ‘चाहे रंक चाहे राजा’, नीला गगन, महासागर, वर्षा-जल, सांस लेने योग्य हवा, हरयाली, रहने के लिए गुफाएं, क्या प्रकृति हमें ‘मेरा-तेरा’ करना सिखाती है ? जो गरीब किसान विषम परिस्थितियों में अपना खून-पसीना एक करके हमारे खाद्यान्न की आपूर्ति हेतु फसल उगाता है, क्या हम चन्द अशर्फियाँ देकर उस किसान के ऋण मुक्त हो जाएंगे ? जी नहीं, कदापि नहीं !! हम उनके ऋण से कदापि मुक्त नहीं हो सकते और श्रद्धा भी उस कृषक के लिए या किसी भी मानव के लिए ह्रदय से आना फलदाई सिद होगा अन्यथा व्यर्थ जायेगा। क्या कृषक यह हिसाब लगाता है की वह जमीन किसकी है ? मात्र एक कागज़ के पुर्जे पर उस किसान का नाम लिखा होना ही पर्याप्त है ? या फिर उस भूमि के टुकड़े के लिए हमे भी सच्ची श्रद्धा से नतमस्तक होना पड़ेगा तभी हम उस किसान के लिए भी न्याय कर पाएंगे ना की कुछ रुपयों से उसके कर्तव्य का मूल्यांकन होगा। जब मैं किलों को देखती हूँ, तब बार-बार एक ही विचार मन मे कोंधता है की लोग किस तरह से ‘तू तू मैं मैं’ के विषैले माया जाल में फ़स कर खुद की जिंदिगियो को ज़हरीला कर रहे है। क्या वह खुद को अजर अमर समझने का कष्ट करते है ? या फिर वह ‘अमर फल’ खाकर इस धरती पर जन्म लेकर धरती को धन्य किया है ? या फिर वह खुद को कोई ‘दिव्य शक्ति’ या कोई ‘कृष्ण अवतार’ समझते है ?
क्या हम राजा-महाराजा खुद को अपने विचारों से नहीं बना सकते है ? क्या हम सांसारिक लोग तृष्णा और इस ‘मेरा तेरा’ के झंझट से मुक्त होकर इस पूरी पृथ्वी को ‘एक राज्य – एक कुटुंब’ का दर्जा नहीं दे सकते ? हम असली सम्राट तभी कहलाएंगे जब हम ‘मेरा-तेरा’ की छिछोरी सोच से आगे बढ़कर इस पूरी दुनिया को घर संसार एवं परिवार का दर्जा दे। हां यह कहावत भारत में कई सालों से प्रचलित है पर क्या हम इसको दोहराने या कहने के लिए बोलते है या हम इसका अभिप्राय भी समझते है ? हम जितना माथापच्ची ‘तेरा मेरा’ को लेकर करते है हम उतना शायद या उसका १ प्रतिशत भी अपनी सोच को बदलने में लगाते है क्या ? हम और हमारी सब चीज़ अस्थाई है तो फिर किस बात का डर ? जो चीज़ हमारे काबू में ही नहीं है पर जो चीज़ हमारे काबू में है वह है हमारी ‘सोच’ जोकि ‘एक पृथ्वी – एक परिवार’ फिर कोई भी असुरक्षित सोच हमे छू भी नहीं सकती जिससे हमारी इच्छा शक्ति को भी अटूट बल मिलेगा।
जो हमारा वर्तमान है वही हमारी ज़िन्दगी होनी चाहिए, वर्तमान मे जो हमारा साथ दे, वही हमारा सच्चा शुभचिंतक होगा, वैसे हमारे तो सबसे बड़े रिश्तेदार प्रकृति है जिसमे पेड़-पौधे, नीला गगन, हंसते खिलखिलाते पुष्प, पशु-पक्षी, इत्यादि सब हमारे कुटुंब है, कम से कम वह मतलब से कोई बात या काम नहीं करते और वह हमें खुश रखने का प्रयास करते हैं।
हमें ‘राजा’ अपनी सोच से बनना होगा ना की अस्थाई धन-दौलत से । हमारा राज्य शांति, समृद्धि, आत्मनिर्भरता, परिपूर्णता का होगा ना की कोई क्रूरता रूपी दानव का तांडव हमारे दिलोदिमाग पर कायम रहे और ‘तू तू मैं मैं’ के ‘पिशाच’ से हमारा पिंड सदा के लिए तभी छूठेगा जब हम अपने सोच को विशालता प्रदान करें । जब इतने महान राजे-रजवाड़े नहीं ठीके तो हमारी क्या बिसात ? ना तो हमारे पास वह हुकूमत है ना धन-दौलत ना सैन्य-शक्ति, बस हमारे पास अगर है तो वह है हमारी ‘सोच’ हर सांसारिक ऐशोआराम का एक मात्र लक्ष्य होता है तृप्ति उसके फल स्वरुप ख़ुशी। अगर हमारे पास सब चीज़ होते हुए भी हम खुश नहीं है एवं तृप्ति का दूर दूर तक अता पता नहीं है तो ऐसे सांसारिक सुख का क्या फ़ायदा ? महत्वकांशी भी हमे अपनी ‘सोच’ से होना है ना की कागज़ के कुछ टुकड़ों से। अगर हमारी सोच हमारे वश मे है तो हम एक सफल राजा हुए अन्यथा हमारा अस्तित्त्व भी संकट मैं है। हमारी ‘सोच’ ही हमे खुश या दुख के पथ पर अग्रसर करती है, अतः हमारे ऊपर है की हम कौन सा पथ लें।
सोच अच्छी तो ख़ुशी भी सच्ची…