मेरे बचपन की राखी…!!

मेरे बचपन की राखी…!!

सर्वश्रेष्ठ राखी मेरी प्रकृति माँ की तरफ़ से…

जून-जुलाई के मूसलाधार बारिश के बीच १ जुलाई को स्कूल का खुलना जहां एक तरफ अत्यंत आनंदायक होता था वही नए जूते, वर्दी, जिल्द लगी कॉपी-किताब जिनके ‘नाम चिट’ पर पूरी कलाकारी से लिखे हुए नाम के अक्षर और अगर टिफ़िन बॉक्स मे माता जी की कृपा से कुछ अच्छा मिल जाता तो बस फिर क्या बात होती थी, इन सब से अलंकृत होकर स्कूल तक बिना भीगे पहुंचना मानो सबसे बड़ा वरदान साबित होता था | जुलाई के महीने की क्लास टेस्ट, यूनिट टेस्ट सब अत्यधिक निष्ठा के साथ निपटा कर सिर्फ एक ही चीज़ का इंतज़ार होता था की कब आएगा ‘रक्षाबंधन’ ? कितने दिन पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थी, अलमारी से अनगिनत बार कपड़े उलट-पुलट कर देखना, दराज से मैचिंग चूड़िओं का सेट बनाना, मिलती-जुलती बिन्दी के पत्ते सब देखकर ख़ुशी से मंद-मंद मुस्कुराना ! जैसे-जैसे राखी पास आती तैयारियां और जोर-शोर से होती, २-३ दिन पहले से मेहँदी की पत्तियां तोड़ कर सब सहेलियों के साथ पत्थर से पिसना और उसी दौरान हाथों को नारंगी होते देख खीज उठना |

राखी के आस-पास बारिश तो मानो साँस लेना ही भूल गई हो, बिना रुके बस बरसना ! इन्ही सब गुथम-गुत्थी के बीच रंग-बिरंगी छतरियों से सुसज्जित होकर बाज़ार की तरफ़ अग्रसर होना, वहां की छठा तो मानो देख़ते ही बनती थी, वह रंग-बिरंगे तम्बू, लगे हुए मिठाई के दुकान जहां की मिठाइयां भी इंद्र-धनुषी, कहीं हँसता हुआ हरा नारियल बर्फी तो कहीं इठलाता हुआ चॉकलेट बर्फी, उनको मुँह चिढ़ाते हुए गुलाबी बर्फी का ट्रे उसी के बाजू मे मक्खियों से भिड़ा हुआ गुलाबजामुन, इमरती भी कहाँ पीछे रहती अपने रंग से थोड़ा ज्यादा लाल एवं ठंडा, दुकानदार अंकल को पूरी पोटने की कोशिश रहती की थोड़ी चखा दे !

यह रंग-बिरंगी मिठाइयां मानो परी-कथा के देश से आई थीं इनके सामने मम्मी की बनाई शुद्ध घी के माल-पुए, हलवा या काजू बर्फी सब फीके थे, ना कोई इन्फेक्शन का डर हाँ अगर इन्फेक्शन हो भी जाता तो बल्ले-बल्ले, कुछ दिन और स्कूल की छुट्टी के साथ शुरू हो जाता मिठाई चुराकर राखी को पुनः मनाने का सिलसिला, यह तो हुई बाज़ार के एक कोण का हर्षोल्लास, अभी तो राखी के दुकानों का हुड़दंग बचा था, उसी बीच मम्मी दूसरी आंटियों के साथ गपशप करते हुए मेहँदी लगवाने बैठ चुकी होती थीं इसका मतलब हम बच्चों को कुछ मिठाइयों का घूस देकर मुँहबोले कुली का काम करना निश्चित हो जाता था |

इस बीच रुमाल के पैटर्न को लेकर घमासान छिड़ जाता था, बहुत वादविवाद के बाद रुमाल का चयन एवं मूल्य तय करने के पश्चात फिर फाउ मांगने की बारी आती थी, दुकानदार भी थक कर हमें एक रुमाल गिफ़्ट करने के पहले दो बार ना सोचता था मानो सोच रहा हो की यह बलाए कैसे टलें ! इतने मे हम मे से कुछ मेहँदी के कोन फाउ मांगते या फिर अपने हाथ की ‘कला’ दिखाने की कोशिश करते पर हर बार कुछ चूक हो जाती और हमारा प्लान धरा का धरा |

चूड़ियाँ तो मानो अलग ही दुनियाँ की कहानी बयां करते है मेरे लिए आज भी, घंटों लगता है उन्ही को टकटकी लगा कर देखते रहें, लाल, हरी, नीली, पिली, और ना जाने क्या-क्या ? पर सारे सुन्दर ! मोल-भाव करकर चूड़ियाँ की भी खरीदारी होती और हम छोटी लड़कियों को दुकानदार अपने सरपट हाथ की कला से बस फटाफट चूड़ियाँ पहना देता, ना एक टूटती ना एक खरोंच आती बस हम लोग अपने कलाई घुमा-घुमा कर देखते और दिखाते मानो हाथों मे कई रंगों के फूल खिल गए हो, इस बीच अगर बारिश तेज़ हो जाती जोकि हम बच्चों की हार्दिक ख्वाइश होती तो हमारा गंतव्य स्थान कोने वाली चाट पकोड़ी की दुकान निश्चित थी |

इस तरह हमारी ख़रीदारी एक मुकाम से दूसरे मुकाम तक हंसते खिलखिलाते आगे बढ़ती है | इस बीच गरम-गरम घेवड़ एवं मठरी की खुसबू हमें ‘कुमार स्वीट्स’ की तरफ खींच ले जाती, घेवड़ पूरे देहरादून मे उसी के पास सबसे ज्यादा स्वादिष्ट होती थी, वहा पर भी खूब धमाचौकड़ी मचती, खूब सारी मिठाइयों की खरीदारी होती, ठेलों से भीनी-भीनी नए सेब व नाशपाती की खुशबू मानो पहाड़ों की सैर करा देती, श्रीफल एवं बाकी खरीदारी सम्पूर्ण कर अब घर वापसी की बारी |

पर मन मे अगले दिन की पूरी, सब्जी, खीर, चने के दाल की खिचड़ी, भिन्न-भिन्न प्रकार की मिठाई से सुसज्जित राखी की थाली पर इन सबसे बड़ी उत्तेजना का पात्र छुपा होता उपहार मे !! बस यह सब चीज़ें कहां चैन से रहने देती |

अगले दिन ना कोई अलार्म ना मम्मी की फटकार बस नींद अपने आप कोसों दूर भाग जाती और मैं अपने आप नाहा-धोकर फटाफट तैयार, पर रात भर मेहँदी ख़राब होने से बचाने के चक्कर मे सोया ही कौन था बस एक हलकी-फुलकी झपकी मात्र थी, तैयार होकर फूल एवं दूब घास लाकर गोपू जी की आरती की थाली तैयार करने की ड्यूटी मेरी थी, बस गोपू जी को राखी बांधने के साथ ही रक्षाबंधन का वह शुभ दिन कब शुरू होकर खत्म हो जाता कुछ खबर ही नहीं होती बस फिर उस दिन से अगले रक्षाबंधन का बेसब्री से इंतज़ार रहता…

आज भी वह रंग-बिरंगे छठा बिखेरते मनोरम बाजार के दृश्य याद करो तो मन को गुदगुदा जाते हे | आज भी राखी का बाजार जाती हूँ तो वही बीते दिनों की खोज शुरू हो जाती है, काफी चीज़े ’जस की तस’ है अगर कुछ बदला है तो वह है ‘इंसान की मानसिकता’ जहां अब ‘इंटरनेट’ की ‘वर्चुअल’ राखी को ‘फ्रेंडशिप डे’ कह कर मनाते है और उसी मे बहुत गर्व महसूस किया जाता है, क्योकि आजकल ट्रेंड मे है की सारी रिश्तेदारी ‘स्मार्ट फ़ोन’ पर ही निभा दी जाती है पर मैं आज भी बचपन वाली राखी को ही जीती हूँ और जीना चाहती हूँ…

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