हम ना कहते थे खुद को बहुकोशिकीय, इतने वर्षो का ‘क्रमागत उन्नति’ का नतीजा है हम, पर यह क्या हम तो एक हलके से ‘तिनके’ की तरह उड़ गए | उस ‘प्रोटीन कतरा’ के सामने हमने घुटने टेक दिए | हमारे इतने विकसित भिन्न-भिन्न प्रणाली, मस्तिष्क, मेरुदण्ड, यकृत, गुर्दा, इत्यादि पर उस बेचारे के पास सिर्फ एक सूक्ष्म ‘प्रोटीन कतरा’ जो की खुद मे निष्क्रिय है, क्रियाशील वह तभी होता है जब वह इंसानी-शरीर मे प्रवेश करता है, पर वह इतना ताक़तवर की इतने विशालकाय शरीर को धराशाई करने मे मात्र कुछ पल लगाता है | इंसान को एक-एक सांस के लिए तरपा देती है, पर क्या अब भी हमे अपने साँसों की कीमत नहीं समझनी चाहिए ? जिस तरह एक उथला दिखावे का जीवन प्रचलन मे है, ठीक उसी तरह साँसे भी उतनी ही उथली हो गई है |जिसके कारण हम लोग ‘योग’ की तरफ अग्रसर हो रहे हैं| हमें खुद से यह सवाल करना चाहिएं की क्या योग सिर्फ ‘योग दिवस’ या जाने माने ‘योग गुरु’ के शिविर तक सीमित रैह गया है? या फिर चिकित्सक के कहने पर कुछ तेज़ गहरी सांसे लेने का कष्ठ उठातें हैं ।
अरे भाई, साँसें हमारी, हमारे सेहत के लिए तो फिर क्यो किसी के टोकने का इंतेज़ार करें? जब तक हम सजग होते तब तक वह सुष्म जीवी पूर्ण रूप से हमारी जीवन रेखा, हमारी साँसों पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर चूका था और यहाँ मानव जाती असहाय हो कर देखती रही। फिर शुरू हुआ ‘नीम हकिम तो खतरा जान’ वाले प्रयोगों का दौर, कभी कोई पत्ती तो कभी कोई मूल, कभी कोई दवाई तो कभी कोई दवाई पर कुछ काम नहीं आया और मौत की तांडव लीला बेलगाम रफ्तार पकड़ती गई, इस तरह असहाय होकर साँसों की डोर टूटती गई, यह मंजर बहुत ही दिल दहलाने वाला खौफनाक दृश्य है । जो लोग ‘कोविड’ का ग्रास बने वो रोते-बिलखते छोड़ गए जिनको, उनके लिए भी जीवन मोत से भी बदतर, मात्र जीने की सज़ा हो कर रह गई | हर पल बस मृत्यु का खौफ जाने किस दरवाज़े, किस खिड़की, किस छेद से मौत दबे पाँव अंदर आकर किस परिवार के सदस्य को मौत का आलिंगन करने की प्रबल ईच्छा प्रकट करे, जिस तरह बिन-बुलाये महमान की तरहं बिना अनुमति प्रवेश किया था ठीक उसी तरहं ना जाने अपने किसी शिकार को प्रेमालिंगन कर अपनी बाँहों में ले मौत की नींद सुला दे।